"मुस्लिम समाज का एक भी व्यक्ति नहीं लेकिन वर्षों से चली आ रही है ताजिया और जुलूस की परंपरा, यह सौहार्द की यह सोंधी खुशबू पूर्वांचल की उसी मिट्टी से उठ रही है, जिस रास्ते मर्यादा पुरुषोत्तम, सिया को ब्याह कर लौटे थे जनकपुर से अयोध्या"
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बस्ती (ब्यूरो, उत्तर प्रदेश)। मोहर्रम का जिक्र होते ही ताजिया, मातम और मुस्लिम समुदाय की तस्वीर जेहन में आती है। लेकिन यहां एक दूसरी ही खुशबू फिजां में घुलती महसूस हुई। यहां मुस्लिम समाज का एक भी व्यक्ति नहीं लेकिन ताजिया और जुलूस की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। यह सौहार्द की यह सोंधी खुशबू पूर्वांचल की उसी मिट्टी से उठ रही है, जिस रास्ते मर्यादा पुरुषोत्तम, सिया को ब्याह कर जनकपुर से अयोध्या धाम लौटे। कबीर ने काशी को छोड़कर इसी इलाके को निर्वाण के लिए चुना। गोरखबाणी इसी इलाके में गूंजती हैं तो नानक से बुद्ध इस धरा को अपने ज्ञान-उपदेश से सुवाषित कर चुके हैं। इस बार भी मुहर्रम पर बरसों से चली आ रही हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की परंपरा यह गांव निभा रहा है। यहा बस्ती जिले के बनकटी ब्लॉक का अरइल डिगर पट्टी गांव है। गांव में रंगीन पन्नियों और खूबसूरत झालरों से सजे ताजियों को हिन्दू समुदाय के लोगों ने बड़ी शिद्दत से गढ़ा है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इस गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है। अरइल डिगर पट्टी गांव की आबादी तकरीबन 250 है। सभी हिंदू धर्म को मानने वाले लोग हैं, जो ताजिया बनाते और निकालते हैं। अरइल डिगर पट्टी के लोग मुस्लिम धर्म से जुड़ी रवायतों के मुताबिक इमाम हुसैन को यादकर उनकी इबादत करते हैं।
इस गांव में हिन्दू धर्म से जुड़े लोग सनातक धर्म के अलावा इस्लाम धर्म के इमाम हुसैन के साथ कर्बला के शहीदों को भी याद करते हैं। अरइल डिगर पट्टी के हिंदू लोग ताजिया बनाने के साथ इसे पूरे गांव में घूमाते भी हैं। गांव में ताजिया जिन लोगों के घरों के सामने से गुजरता है वह सभी लोग उसका दिल खोलकर इस्तकबाल करते हैं। गांव के लोगों का ताजिये के प्रति हिंदुओं का इतना सम्मान वाकई देखने लायक होता है। मुहर्रम के 10वें दिन पड़ोस के कई गांवों के लोग ताजिये के जुलूस में शरीक होते हैं। 10वीं मोहर्रम के दिन ताजिये को गांववाले पोखरे में दफन करते हैं। गांव के उदयराज विश्वकर्मा बताते हैं कि ताजिया बनाने के लिए परिवार के अन्य लोग भी मदद करते हैं। उन्होंने बताया कि सामान की खरीदारी खलीलाबाद (संतकबीरनगर) से करते हैं। नवीं मोहर्रम पर उपवास रखते हैं और तासा भी बजाते हैं। गांव के अर्जुन, इन्देश, सुग्रीव, रामसमुझ, रामचन्द्र आदि लोग भी मोहर्रम को मिलकर मानते हैं। उदयराज ने बताया कि मोहर्रम हमारी तीसरी पीढ़ी से मनाया जा रहा है। गांव के लोग इमाम हुसैन को याद करते हुए सिन्नी चढ़ाकर दीपक भी जलाते हैं। वहीं उदयराज की मां ने बताया कि यह हमारे लिए आस्था से जुड़ा मामला है।
रिपोर्ट- बस्ती ब्यूरो डेस्क