अनियमित बारिश ने फसलों की उपज को किया हैं प्रभावित, हालांकि देश के कुछ हिस्सों में हो रही चक्रवाती बारिश ने पहुंचाई हैं कुछ राहत, विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले 15 दिन धान की फसल के लिए हैं बेहद ही महत्वपूर्ण, धान के पौधों में बालियां लगने और उनमें दाने पड़ने का हैं समय, ऐसे में इस समय पौधे को ज्यादा पानी की होती हैं जरूरत
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अगले 15 दिन खेती के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण
नई दिल्ली (ब्यूरो डेस्क)। अनियमित बारिश ने फसलों की उपज को प्रभावित किया है। देश के कुछ हिस्सों में हो रही चक्रवाती बारिश ने राहत पहुंचाई हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले 15 दिन खेती के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। ऐसे में देश के जिन हिस्सों में अच्छी बारिश हुई है वहां पैदावार सामान्य से ज्यादा होने की संभावना बढ़ी है। वहीं, जिन हिस्सों में कम बारिश से फसलें खराब हो गई हैं, उन इलाकों में किसानों को राहत पहुंचाने के लिए भारत सरकार की संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और उसके वैज्ञानिकों की ओर से किसानों को वैकल्पिक फसलों की जानकारी भी उपलब्ध कराई जा रही है।
413 लाख हेक्टेयर में धान की हुई हैं बुआई
केंद्र सरकार की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक इस साल 413 लाख हेक्टेयर में धान की बुआई की गई है जो पिछले साल से लगभग 9 लाख हेक्टेयर ज्यादा है। इसी तरह इस साल दलहन की बुआई 128.58 लाख हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल की तुलना में लगभग 10 लाख हेक्टेयर ज्यादा है। लेकिन इस साल देश में हुई असंतुलित बारिश से पैदावार को लेकर चिंता बढ़ी है। आईसीएआर के संस्थान सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ड्राइलैंड एग्रीकल्चर के निदेशक डॉक्टर विनोद कुमार सिंह कहते हैं कि धान की पैदावार को लेकर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन अगले 15 दिन बेहद महत्वपूर्ण है। दरअसल इस मौसम में धान के पौधों में बालियां फूटने और उनमें दाने आने का समय है। इस समय पौधे को पानी की काफी जरूरत होगी। इस साल मानसून की बारिश बेहद असंतुलित रही है। कुछ जगहों पर सामान्य से कहीं अधिक बारिश हुई है तो धान के उत्पादन वाले कुछ राज्यों में बारिश सामान्य से कम है। पूर्वी और उत्तर पूर्व भारत में सामान्य से कम बारिश रही है। जिन जगहों पर अच्छे सिंचाई के साधन हैं या जहां ग्राउंड वॉटर की स्थिति बेहतर है। वहां किसान का खर्च जरूर बढ़ जाएगा पर फसल हो जाएगी। लेकिन लौटते मानसून और कुछ जगहों पर चक्रवाती बारिश ने राहत दी है। दक्षिण भारत के कई जिलों में चक्रवाती बारिश ने पैदावार के नुकसान को कम किया है।
असंतुलित बारिश से किसानों को कई चुनौतियां
ICAR के संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ राइस रिसर्च में एग्रोनॉमी विभाग के प्रमुख डॉक्टर आर महेंद्र कुमार कहते हैं कि इस साल मानसून की असंतुलित बारिश से धान के किसानों के सामने कई चुनौतियां पैदा की हैं। कुछ जगहों पर पानी की कमी से जहां धान की फसल को बचाए रखना मुश्किल हो रहा है वहीं कुछ जगहों पर ज्यादा बारिश की वजह से हल्दिया या अन्य रोग लगने का खतरा बढ़ा है। लेकिन कुछ जगहों से राहत भरी खबर भी आ रही है। दक्षिण भारत में चक्रवाती बारिश के चलते धान की खेती में कुछ सुधार देखा जा रहा है। कुछ जगहों पर धान की फसल जहां खराब हो गई थी वहां फिर से फसल लगाने का भी प्रयास किया जा रहा है। कुछ जगहों पर अच्छी बारिश से पैदावार बढ़ने की भी संभावना बनी है। उम्मीद है कि पिछले साल की तुलना में पैदावार कम नहीं होगी।
आखिर सूखे की स्थिति में क्या है समाधान
आईसीएआर के संस्थान सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ड्राइलैंड एग्रीकल्चर के निदेशक डॉक्टर विनोद कुमार सिंह कहते हैं देश के कुछ जिलों में सूखे जैसी स्थिति भी है। ऐसी जगहों पर सरसों की एक प्रजाति जिसे तोरिया कहा जाता है, लगाने की सलाह दी जा रही है। ये 65 से 70 दिन में तैयार हो जाती है। इसके बाद किसान गेहूं की फसल सामान्य रूप से लगा सकते हैं। इसी तरह हरा आलू या दलहन की कुछ फसलों को लगाया जा सकता है।
बारिश के दिनों में लगातार आ रहीं हैं कमी
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते गर्मी बढ़ने के साथ ही मौसम में भी बदलाव देखा जा रहा है। वैज्ञानिकों ने अलग-अलग अध्ययनों में पाया कि फसलों के लिए जरूरी बारिश के दिनों में लगातार कमी आ रही है। मौसम विभाग (IMD) के जनरल मौसम में छपे एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि हर एक दशक में बारिश के दिनों में औसतन 0.23 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। अध्ययन के मुताबिक आजादी के बाद से अब तक देश में बारिश का लगभग डेढ़ दिन कम हो गया है। अध्ययन में बारिश का एक दिन का मतलब ऐसे दिन से है जिस दिन कम से कम 2.5 मिलीमीटर या उससे ज्यादा बारिश हुई हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले एक दशक में एक्सट्रीम इवेंट्स भी काफी तेजी से बढ़े हैं। आईएमडी जर्नल मौसम में प्रकाशित ये अध्ययन 1960 से 2010 के बीच मौसम के डेटा के आधार पर किया गया है।
बारिश के लिए जिम्मेदार लो क्लाउड कवर
अध्ययन में पाया गया कि बारिश के लिए जिम्मेदार लो क्लाउड कवर देश में हर एक दशक में लगभग 0.45 फीसदी कम हो रहा है। खास तौर पर मानसून के दिनों में इनमें सबसे ज्यादा कमी देखी जा रही है। अध्ययन में पाया गया है कि मानसून के दौरान गिरावट औसतन प्रति दशक 1.22 प्रतिशत रही है। दक्षिण-पश्चिम मानसून के लिए 1971 से 2020 तक के आंकड़ों के आधार पर नई अखिल भारतीय वर्षा का आंकलन 868.8 मिमी का रहा है है। 1961 से 2010 के आंकड़ों के आधार पर गणना करने पर देश में औसत वर्ष प्रति वर्ष 880.6 मिमी दर्ज की गई थी । ऐसे में हम सकते हैं कि 1961 से 2010 और 1971 से 2020 के बीच दक्षिण पश्चिम मानसून के आंकड़ों की तुलना करने पर पता चलता है कि इस बीच मानसून की बारिश में औसतन 12 मिलीमीटर की कमी आई है। वहीं देश में वार्षिक तौर पर औसत बारिश में लगभग 16.8 मिलीमीटर की कमी आई है।
जून से सितंबर के बीच होती है इस तरह बारिश
मौसम विभाग के अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2020 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो दक्षिण पश्चिम मानसून देश की कुल बारिश में लगभग 74.9 फीसदी की हिस्सेदारी रहती है। इसमें से जून महीने में लगभग 19.1 फीसदी बारिश होती है। वहीं जुलाई महीने में लगभग 32.3 फीसदी और अगस्त महीने में लगभग 29.4 फीसदी बारिश होती है। सितंबर महीने में औसतन 19.3 फीसदी बारिश दर्ज की जाती है।
कम बारिश व तापमान बढ़ने से घट रहा उत्पादन
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने देश के 573 ग्रामीण जिलों में जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि पर खतरे का आकलन किया है। इसमें कहा गया है कि 2020 से 2049 तक 256 जिलों में अधिकतम तापमान 1 से 1.3 डिग्री सेल्सियस और 157 जिलों में 1.3 से 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। इससे गेहूं की खेती प्रभावित होगी। गौरतलब है कि पूरी दुनिया की खाद्य जरूरत का 21 फीसदी गेहूं भारत पूरी करता है। वहीं, 81 फीसदी गेहूं की खपत विकासशील देशों में होती है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेज एंड वीट रिसर्च के प्रोग्राम निदेशक डॉ. पीके अग्रवाल के एक अध्ययन के मुताबिक तापमान एक डिग्री बढ़ने से भारत में गेहूं का उत्पादन 4 से 5 मीट्रिक टन तक घट सकता है। तापमान 3 से 5 डिग्री बढ़ने पर उत्पादन 19 से 27 मीट्रिक टन तक कम हो जाएगा। हालांकि बेहतर सिंचाई और उन्नत किस्मों के इस्तेमाल से इसमें कमी की जा सकती है।
खाद्य जरूरतों में बढ़ेगी मिलेट्स की भूमिका
बारिश में कमी और बढ़ती गर्मी से गेहूं और धान जेसी पारंपरिक फसलों के उत्पादन पर असर पड़ा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले दिनों में बाढ़, तेज बारिश और सूखे जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ेंगी। ऐसे में खाद्य जरूरतों को पूरा करने में मिलेट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरॉयड ट्रॉपिक संस्था के ग्लोबल रिसर्च प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती गर्मी और असमय बारिश जैसे हालात में मिलेट्स खाद्य जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मिलेट्स के पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं। तेज बारिश में भी इनका पौधा गिरता नहीं है। वहीं जड़ें गहरी होने के चलते सूखे के दौरान इनका पौधा पारंपरिक फसलों की तुलना में काफी समय तक जीवित रह जाता है। मिलेट्स के पौधे तेज गर्मी भी बर्दाश्त कर लेते हैं। मिलेट्स पोषक तत्वों से भी भरपूर हैं। ऐसे में आम लोगों को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है।
रिपोर्ट- नई दिल्ली बाजार डेस्क