"बलिया में कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करने से कट जाते हैं सारे पाप, परिवार में सुख समृद्धि की होती हैं वृद्धि, यह क्षेत्र कहलाता हैं विमुक्त क्षेत्र"
खबरें आजतक Live |
बलिया (ब्यूरो, उत्तर प्रदेश)। उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी भाग में विद्यमान बलिया प्राचीन काल से ही अपनी अनेक विशेषताओं के लिए प्रख्यात रहा है। इसके उत्तर में सरयू दक्षिण में गंगा इन दोनों नदियों के द्वारा आप्लावित तथा पवित्रित भूखंड में विद्वानों, पंडितों, सन्यासियों तथा संतों का आविर्भाव होता रहा है। यहां के माननीय संस्कृत पंडितों ने काशी में आकर पांडित्य के प्रकर्ष का प्रदर्शन कर विमल कीर्ति अर्जित की है। वैदिक कालीन ऋषियों में विशेष रुप से महर्षि भृगु तथा उनके पट्ट शिष्य दर्दर मुनि की तपोस्थली होने के कारण आज भी भृगु क्षेत्र के नाम से अभिहित किया जाता है। बलिया में कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करने से सारे पाप कट जाते हैं तथा उसके परिवार में सुख समृद्धि की वृद्धि होती है। इस भव्य स्नान में युवा वर्ग भी अपने साथियों के साथ स्नान करतें है। यह क्षेत्र विमुक्त क्षेत्र कहलाता है, जिसमें कार्तिक मास में स्नान करना प्रयागराज और काशी से भी महत्वपूर्ण फल देने वाला कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि आज के दिन सारे तीर्थ बलिया में उतर आते हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में यहां के निवासियों के विद्रोही तेवर देखकर यह जनपद बागी बलिया के नाम से भी जाना जाता है।
कार्तिक मास में लगने वाला दर्दर मुनि की आख्या से मंडित होने वाला ददरी मेला व्यापारिक जगत में बलिया की अलग पहचान आज भी संजोए हुए हैं। बलिया का ददरी मेला प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। इस मेले की ऐतिहासिकता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि चीनी यात्री फाह्यान ने इसका जिक्र अपनी पुस्तक में किया है। गुलाम भारत की बदहाली को लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक बेहद मार्मिक निबंध लिखा "भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है" इस निबंध को उन्होंने पहली बार बलिया के ददरी मेले के मंच पर 1884 ईस्वी में पेश किया था। महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर गंगा किनारे लगने वाला यह ऐतिहासिक ददरी मेला भारत का दूसरा बड़ा मवेशी मेला है। एक माह चलने वाला यह मेला वैसे तो दीपावली के बाद ही शुरू हो जाता है जिसमें देश के कोने-कोने से अच्छी नस्ल के पशुओं की खरीद बिक्री की जाती है। परंतु इसकी औपचारिक शुरुआत कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के बाद हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा व घाघरा के संगम में लगभग 5 लाख लोग आते हैं और स्नान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां स्नान मात्र से ही काशी में 60 हजार वर्षों तक तपस्या करने के बराबर पुण्य मिलता है। कहा जाता है कि विष्णु को लात मारने पर महर्षि भृगु को जो श्राप मिला था उससे मुक्ति इसी क्षेत्र में मिली थी।
तपस्या पूरी होने पर महर्षि भृगु के परम शिष्य दर्दर मुनि के नेतृत्व में यज्ञ हुआ था जो एक माह चला जिसमें 88 हजार ऋषियों का समागम हुआ था। यही नहीं यहीं पर महर्षि भृगु मुनि ने ज्योतिष की विख्यात पुस्तक भृगु संगीता की रचना की थी। कहा जाता है कि इसी पुस्तक को संत समाज ने बलिया में एक माह के शास्त्रार्थ के बाद सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। उसके बाद से प्रारंभ हुई यह परंपरा मेला में तब्दील हो गयी। इसकी पुष्टि हमें बलियाग शब्द से होती है जो बलिया का अपभ्रंश है। जिसके बारे में कहा जाता है कि गंगा जमुना के संगम पर यह यज्ञ हुआ। इसलिए इस पूरे क्षेत्र को बलियाग अर्थात यज्ञ का क्षेत्र कहा गया। बाद में बलियाग से "ग"अक्षर का लोप हो गया और यह क्षेत्र बलिया के नाम से विख्यात हुआ। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लगने वाले ददरी मेले का मीना बाजार करीब डेढ़ किलो मीटर की परिधि में लगता है। विभिन्न प्रकार की लगभग 500 दुकानों को खुद में समेटे इस मेले में भारतेंदु मंच कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का गवाह बनता है। चेतक प्रतियोगिता व दंगल के साथ ही अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, मुशायरा, लोकगीत, कव्वाली आदि कार्यक्रम करीब एक महीने तक चलने वाले इस मेले की शान बढ़ाते हैं। बलिया के बारे में एक प्रसिद्ध उक्ति है "वीरों की धरती जवानों का देश बागी बलिया उत्तर प्रदेश"
रिपोर्ट- बलिया ब्यूरो लोकेश्वर पाण्डेय